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    13 April 2017

    100 साल चंपारण सत्याग्रह : चंपारण में सत्याग्रह का पहला फल लगा


    बिहार ने गांधी को पाकर खुद को पहचाना

    बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा  था: अाप क्या कर सकेंगे? 

    इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद फिर बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं ?

    जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या?

    इतिहास ने गांधी का हाथ बिहार के हाथ में दे दिया... 

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    बिहार ने गांधी को पाकर खुद को पहचाना बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा  था: अाप क्या कर सकेंगे?  इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद फिर बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं ? जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या? इतिहास ने गांधी का हाथ बिहार के हाथ में दे दिया...

    10 अप्रैल 2017 को चंपारण का सत्याग्रह 100 साल का हो गया है।

    चंपारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का खुलासा करता है। यह आंदोलन साम्राज्‍यवादी उत्‍पीड़न के लिए लगाई गई सभी भौतिक ताकतों के विरूद्ध लड़ने के लिए एक अनजान कार्य प्रणाली के बारे में जानकारी देताहै। गांधीजी ने इसे सत्‍याग्रह के नाम से पुकारा। चम्‍पारण सत्‍याग्रह के परिणाम ने राजनीतिक स्‍वतंत्रता की अवधारणा और पहुंच को पुनर्भाषित किया और पूरे ब्रिटिश-भारतीय समीकरण को एक जीवंत मोड़ पर खड़ा करदिया।

    चम्पारण में ब्रिटिश बागान मालिकों ने जमींदारों की भूमिका अपना ली थी और वे न केवल वार्षिक उपज का 70 प्रतिशत भूमि कर वूसल कर रहे थे, बल्कि उन्‍होंने एक छोटे से मुआवजे के बदले किसानों को हर एक बीघा (20 कट्टे)जमीन के तीन कट्टे में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया। उन्‍होंने कल्‍पना से बाहर अनेक बहानों के तहत गैर कानूनी उपकर ‘अबवाब’ भी लागू किया। यह कर विवाह में ‘मारवाच’, विधवा विवाह में ‘सागौरा’, दूध, तेलऔर अनाज की बिक्री में ‘बेचाई’ के नाम से जाना जाता था। उन्‍होंने प्रत्‍येक त्‍यौहार पर भी कर लागू किया था। अगर किसी बागान मालिक के पैर में पीड़ा हो जाए, तो वह इसके इलाज के लिए भी अपने लोगों पर ‘घवही’ करलागू कर देता था।   

    10 अप्रैल 2017 को चंपारण का सत्याग्रह 100 साल का हो गया है।   चंपारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का खुलासा करता है। यह आंदोलन साम्राज्‍यवादी उत्‍पीड़न के लिए लगाई गई सभी भौतिक ताकतों के विरूद्ध लड़ने के लिए एक अनजान कार्य प्रणाली के बारे में जानकारी देताहै। गांधीजी ने इसे सत्‍याग्रह के नाम से पुकारा। चम्‍पारण सत्‍याग्रह के परिणाम ने राजनीतिक स्‍वतंत्रता की अवधारणा और पहुंच को पुनर्भाषित किया और पूरे ब्रिटिश-भारतीय समीकरण को एक जीवंत मोड़ पर खड़ा करदिया।


    बाबू राजेन्‍द्र प्रसाद ने ऐसे 41 गैर कानूनी करों की सूची बनाई थी। जो किसान कर का भुगतान करने या नील की खेती करने में नाकाम रहते थे उन्‍हें शारीरिक दंड दिया जाता था। फरीदपुर के मजिस्‍ट्रेट रहे ई. डब्‍ल्‍यू.एल.टॉवर ने कहा था ‘नील की एक भी ऐसी चेस्‍ट इं‍ग्‍लैंड नहीं पहुंची, जिस पर मानव रक्‍त के दाग न लगे हों। मैंने रयत देखे, जो शरीर से आर-पार निकले हुए थे। यहां नील की खेती रक्‍तपात की एक प्रणाली बन गई है। डर काबोलबाला था। ब्रिटिश बागान मालिक और उनके एजेंट आतंक के पर्याय थे।’

    याचिकाओं और सरकार द्वारा नियुक्‍त समितियों के माध्‍यम से स्थिति को सुधारने के अनेक प्रयास किये गये, लेकिन कोई राहत नहीं मिली और स्थिति निराशाजनक ही रही। गांधीजी नील की खेती करने वाले एक किसानराजकुमार शुक्‍ला के अनुरोध पर चम्‍पारण का दौरा करने पर सहमत हो गए, ताकि वहां स्थिति का स्‍वयं जायजा ले सकें। बागान मालिक, प्रशासन और पुलिस के बीच गठजोड़ के कारण एक आदेश बहुत जल्‍दी में जारी कियागया कि गांधीजी की उपस्थिति से जिले में जन आक्रोश फैल रहा है, इसलिए उन्‍हें तुरंत जिला छोड़ना होगा या फिर दंडात्‍मक कार्रवाई का सामना करना होगा।
    बाबू राजेन्‍द्र प्रसाद ने ऐसे 41 गैर कानूनी करों की सूची बनाई थी। जो किसान कर का भुगतान करने या नील की खेती करने में नाकाम रहते थे उन्‍हें शारीरिक दंड दिया जाता था। फरीदपुर के मजिस्‍ट्रेट रहे ई. डब्‍ल्‍यू.एल.टॉवर ने कहा था ‘नील की एक भी ऐसी चेस्‍ट इं‍ग्‍लैंड नहीं पहुंची, जिस पर मानव रक्‍त के दाग न लगे हों। मैंने रयत देखे, जो शरीर से आर-पार निकले हुए थे। यहां नील की खेती रक्‍तपात की एक प्रणाली बन गई है। डर काबोलबाला था। ब्रिटिश बागान मालिक और उनके एजेंट आतंक के पर्याय थे।’ याचिकाओं और सरकार द्वारा नियुक्‍त समितियों के माध्‍यम से स्थिति को सुधारने के अनेक प्रयास किये गये, लेकिन कोई राहत नहीं मिली और स्थिति निराशाजनक ही रही। गांधीजी नील की खेती करने वाले एक किसानराजकुमार शुक्‍ला के अनुरोध पर चम्‍पारण का दौरा करने पर सहमत हो गए, ताकि वहां स्थिति का स्‍वयं जायजा ले सकें। बागान मालिक, प्रशासन और पुलिस के बीच गठजोड़ के कारण एक आदेश बहुत जल्‍दी में जारी कियागया कि गांधीजी की उपस्थिति से जिले में जन आक्रोश फैल रहा है, इसलिए उन्‍हें तुरंत जिला छोड़ना होगा या फिर दंडात्‍मक कार्रवाई का सामना करना होगा।

    गांधी ने ना केवल सरकार और जनता को इस आदेश की अवज्ञा करने की घोषणा करते हुए चौंका दिया, बल्कि यह इच्‍छा भी जाहिर की कि जब तक जनता चाहेगी वे चंपारण में ही अपना घर बना कर रहेंगे। मोतिहारी जिलाअदालत में मजिस्ट्रेट के सामने गांधीजी ने जो बयान दिया, उससे सरकार चकित हुई और जनता उत्‍साहित हुई थी। गांधीजी ने कहा था कि कानून का पालन करने वाले एक नागरिक के नाते मेरी पहली यह प्रवृत्ति होगी कि मैंदिए गए आदेश का पालन करूं, लेकिन मैं जिनके लिए यहां आया हूं, उनके प्रति अपने कर्तव्‍य की हिंसा किये बिना मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं यह बयान केवल दिखावे के लिए नहीं दे रहा हूं कि मैंने कानूनी प्राधिकार के प्रतिसम्‍मान की इच्‍छा के लिए दिए गए आदेश का सम्‍मान नहीं किया है, बल्कि यह हमारे अस्तित्‍व के उच्‍च कानून के प्रति मेरे विवेक की आवाज भी  है। यह समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया और अदालत के सामनेअभूतपर्वू भीड़ इकट्ठी हो गई। बाद में गांधीजी ने इसके बारे में लिखा कि किसानों के साथ इस बैठक में मैं भगवान, अहिंसा और सत्‍य के साथ आमने सामने खड़ा था। स्थिति से किस तरह निपटा जाए, इसके बारे में मजिस्‍ट्रेटऔर सरकारी अभियोजक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वे मामले को स्‍थगित करना चाहते थे। गांधीजी ने कहा था कि स्‍थगन जरूरी नहीं है, क्‍योंकि वह अवज्ञा के दोषी हैं।

    गांधी ने ना केवल सरकार और जनता को इस आदेश की अवज्ञा करने की घोषणा करते हुए चौंका दिया, बल्कि यह इच्‍छा भी जाहिर की कि जब तक जनता चाहेगी वे चंपारण में ही अपना घर बना कर रहेंगे। मोतिहारी जिलाअदालत में मजिस्ट्रेट के सामने गांधीजी ने जो बयान दिया, उससे सरकार चकित हुई और जनता उत्‍साहित हुई थी। गांधीजी ने कहा था कि कानून का पालन करने वाले एक नागरिक के नाते मेरी पहली यह प्रवृत्ति होगी कि मैंदिए गए आदेश का पालन करूं, लेकिन मैं जिनके लिए यहां आया हूं, उनके प्रति अपने कर्तव्‍य की हिंसा किये बिना मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं यह बयान केवल दिखावे के लिए नहीं दे रहा हूं कि मैंने कानूनी प्राधिकार के प्रतिसम्‍मान की इच्‍छा के लिए दिए गए आदेश का सम्‍मान नहीं किया है, बल्कि यह हमारे अस्तित्‍व के उच्‍च कानून के प्रति मेरे विवेक की आवाज भी  है। यह समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया और अदालत के सामनेअभूतपर्वू भीड़ इकट्ठी हो गई। बाद में गांधीजी ने इसके बारे में लिखा कि किसानों के साथ इस बैठक में मैं भगवान, अहिंसा और सत्‍य के साथ आमने सामने खड़ा था। स्थिति से किस तरह निपटा जाए, इसके बारे में मजिस्‍ट्रेटऔर सरकारी अभियोजक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वे मामले को स्‍थगित करना चाहते थे। गांधीजी ने कहा था कि स्‍थगन जरूरी नहीं है, क्‍योंकि वह अवज्ञा के दोषी हैं।
     गांधीजी के दृष्टिकोण की नवीनता अत्‍यंत विनम्रता, पारदर्शिता, लेकिन फिर भी बहुत दृढ़ और मजबूत व्‍यक्तित्‍व से लोगों ने देखा कि उन्‍हें गांधी के रूप में एक उद्धारकर्ता मिल गया है, जबकि सरकार अत्‍यंत विरोधी है।मजिस्‍ट्रेट ने मामले को खारिज कर दिया और कहा कि गांधीजी चम्‍पारण के गांवों में जाने के लिए आजाद हैं। गांधीजी ने वायसराय और उपराज्‍यपाल तथा पंडित मदनमोहन मालवीय को पत्र लिखे। पंडित मदनमोहन मालवीयने हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय के काम में व्‍यस्‍तता के कारण चम्‍पारण के लिए अपनी अनुपलब्‍धता के बारे में उन्‍हें पत्र लिखा। सी. एफ. एंड्रयूज नामक एक अंग्रेज, जिन्‍हे लोग प्‍यार से दीनबंधु कहते थे, गांधीजी की सहायता केलिए पहुंचे। पटना के बुद्धिजीवी बाबू ब्रज किशोर प्रसाद, बैरिस्टर मज़ारुल हक, बाबू राजेंद्र प्रसाद तथा प्रोफेसर जेपी कृपलानी के नेतृत्‍व में युवाओं की अप्रत्‍याशित भीड़ के साथ गांधीजी की सहायता के लिए उनके चारों ओर इकट्ठेहो गए।
     गांधीजी के दृष्टिकोण की नवीनता अत्‍यंत विनम्रता, पारदर्शिता, लेकिन फिर भी बहुत दृढ़ और मजबूत व्‍यक्तित्‍व से लोगों ने देखा कि उन्‍हें गांधी के रूप में एक उद्धारकर्ता मिल गया है, जबकि सरकार अत्‍यंत विरोधी है।मजिस्‍ट्रेट ने मामले को खारिज कर दिया और कहा कि गांधीजी चम्‍पारण के गांवों में जाने के लिए आजाद हैं। गांधीजी ने वायसराय और उपराज्‍यपाल तथा पंडित मदनमोहन मालवीय को पत्र लिखे। पंडित मदनमोहन मालवीयने हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय के काम में व्‍यस्‍तता के कारण चम्‍पारण के लिए अपनी अनुपलब्‍धता के बारे में उन्‍हें पत्र लिखा। सी. एफ. एंड्रयूज नामक एक अंग्रेज, जिन्‍हे लोग प्‍यार से दीनबंधु कहते थे, गांधीजी की सहायता केलिए पहुंचे। पटना के बुद्धिजीवी बाबू ब्रज किशोर प्रसाद, बैरिस्टर मज़ारुल हक, बाबू राजेंद्र प्रसाद तथा प्रोफेसर जेपी कृपलानी के नेतृत्‍व में युवाओं की अप्रत्‍याशित भीड़ के साथ गांधीजी की सहायता के लिए उनके चारों ओर इकट्ठेहो गए।
     गांव की दायनीय हालत देखकर गांधीजी ने स्‍वयंसेवकों की सहायता से छह ग्रामीण स्कूल, ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र, ग्रामीण स्‍वच्‍छता के लिए अभियान और नैतिक जीवन के लिए सामाजिक शिक्षा की शुरूआत की। देशभरके स्‍वयंसेवकों ने सौंपे जाने वाले कार्यों के लिए अपना नामांकन कराया। इन स्‍वंयसेवकों में सरवेंटआफ इंडियन सोसायटी के डॉ. देव भी थे।पटना के स्‍वयसेवकों ने आत्‍म निर्धारित श्रेष्‍ठता का परित्‍याग करके एक साथ रहना,साधारण आम भोजन खाना और किसानों के साथ भाई-चारे का व्‍यवहार करना शुरू कर दिया। उन्‍होंने खाना बनाना और बर्तन साफ करना भी शुरू कर दिया। पहली बार किसान अन्‍यायी प्‍लांटरों से परेशान होकर निडर रूप सेअपनी परेशानियां दर्ज करवाने के लिए आगे आए। व्‍यवस्थित जांच मामले के तर्कसंगत अध्‍ययन और सभी पक्षों के मामले की शांतिपूर्ण सुनवाई, जिसमें ब्रिटिश प्‍लांटर्स भी शामिल थे तथा न्‍याय के लिए आह्वान के कारणसरकार ने एक जांच समिति का गठन करने के आदेश दिए। इस कमेटी में गांधीजी भी एक सदस्‍य थे, जिन्‍होंने आखिर में चम्‍पारण से टिनखटिया प्रणाली के पूर्ण उन्‍नमूलन की अगुवाई की।
    गांव की दायनीय हालत देखकर गांधीजी ने स्‍वयंसेवकों की सहायता से छह ग्रामीण स्कूल, ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र, ग्रामीण स्‍वच्‍छता के लिए अभियान और नैतिक जीवन के लिए सामाजिक शिक्षा की शुरूआत की। देशभरके स्‍वयंसेवकों ने सौंपे जाने वाले कार्यों के लिए अपना नामांकन कराया। इन स्‍वंयसेवकों में सरवेंटआफ इंडियन सोसायटी के डॉ. देव भी थे।पटना के स्‍वयसेवकों ने आत्‍म निर्धारित श्रेष्‍ठता का परित्‍याग करके एक साथ रहना,साधारण आम भोजन खाना और किसानों के साथ भाई-चारे का व्‍यवहार करना शुरू कर दिया। उन्‍होंने खाना बनाना और बर्तन साफ करना भी शुरू कर दिया। पहली बार किसान अन्‍यायी प्‍लांटरों से परेशान होकर निडर रूप सेअपनी परेशानियां दर्ज करवाने के लिए आगे आए। व्‍यवस्थित जांच मामले के तर्कसंगत अध्‍ययन और सभी पक्षों के मामले की शांतिपूर्ण सुनवाई, जिसमें ब्रिटिश प्‍लांटर्स भी शामिल थे तथा न्‍याय के लिए आह्वान के कारणसरकार ने एक जांच समिति का गठन करने के आदेश दिए। इस कमेटी में गांधीजी भी एक सदस्‍य थे, जिन्‍होंने आखिर में चम्‍पारण से टिनखटिया प्रणाली के पूर्ण उन्‍नमूलन की अगुवाई की।

    चंपारण से सबक
    चंपारण से नई जागृति आई और इसने यह दर्शाया है कि:
    –          कोई  प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसकी अन्यायपूर्ण व्यवस्था हमारी दुश्मन है
     चंपारण से नई जागृति आई और इसने यह दर्शाया है कि:  –          कोई  प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसकी अन्यायपूर्ण व्यवस्था हमारी दुश्मन है चम्पारण में ब्रिटिश बागान मालिकों ने जमींदारों की भूमिका अपना ली थी और वे न केवल वार्षिक उपज का 70 प्रतिशत भूमि कर वूसल कर रहे थे, बल्कि उन्‍होंने एक छोटे से मुआवजे के बदले किसानों को हर एक बीघा (20 कट्टे)जमीन के तीन कट्टे में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया। उन्‍होंने कल्‍पना से बाहर अनेक बहानों के तहत गैर कानूनी उपकर ‘अबवाब’ भी लागू किया। यह कर विवाह में ‘मारवाच’, विधवा विवाह में ‘सागौरा’, दूध, तेलऔर अनाज की बिक्री में ‘बेचाई’ के नाम से जाना जाता था। उन्‍होंने प्रत्‍येक त्‍यौहार पर भी कर लागू किया था। अगर किसी बागान मालिक के पैर में पीड़ा हो जाए, तो वह इसके इलाज के लिए भी अपने लोगों पर ‘घवही’ करलागू कर देता था।
    –          अहिंसा में, क्रोध और घृणा किसी कारण और दृढ़ता को रास्ता प्रदान करते हैं
    –          अन्यायपूर्ण कानून के साथ सभ्यतापूर्ण असहयोग और अपेक्षित दंड को प्रस्तुत करने तथा सच्‍चाई के अनुपालन की इच्‍छा ऐसे बल का सृजन करती है, जो किसी सत्तावादी ताकत को निस्‍तेज करने के लिए पर्याप्‍त है।
    –          निडरता, आत्मनिर्भरता और श्रम की गरिमा स्वतंत्रता का मूल तत्‍व है
    –          यहां तक कि शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति भी चरित्र बल पर ताकतवर बनकर विरोधियों को परास्‍त कर सकता है !
    अहिंसा में, क्रोध और घृणा किसी कारण और दृढ़ता को रास्ता प्रदान करते हैं  –          अन्यायपूर्ण कानून के साथ सभ्यतापूर्ण असहयोग और अपेक्षित दंड को प्रस्तुत करने तथा सच्‍चाई के अनुपालन की इच्‍छा ऐसे बल का सृजन करती है, जो किसी सत्तावादी ताकत को निस्‍तेज करने के लिए पर्याप्‍त है।  –          निडरता, आत्मनिर्भरता और श्रम की गरिमा स्वतंत्रता का मूल तत्‍व है  –          यहां तक कि शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति भी चरित्र बल पर ताकतवर बनकर विरोधियों को परास्‍त कर सकता है !    चंपारण सत्याग्रह के बारे में बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि       राष्ट्र ने अपना पहला पाठ सीखा और सत्याग्रह का पहला आधुनिक उदाहरण प्राप्‍त किया।


    चंपारण सत्याग्रह के बारे में बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि
     राष्ट्र ने अपना पहला पाठ सीखा और सत्याग्रह का पहला आधुनिक उदाहरण प्राप्‍त किया।
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    * लेखक गुजरात विद्यापीठ के पूर्व छात्र हैं और वर्तमान में गांधी रिसर्च फाउंडेशन, जलगांव, (महाराष्ट्र) के डीन हैं। लेख में व्यक्त विचार व्‍यक्तिगत हैं।


    Note:- चुकि इस Website के Admin भी चंपारण के ही है तो , इस लेख  को लिखते हुए मुझे काफी खुशी हो रही है मै इस अवसर पर फुले नहीं समां रहा काफी कुछ देश के लिए करने का लालशा जागृत हो रही है जैसा की हमारे पूर्वजो ने किया है !


    इसे भी जरुर पढ़े ... Written By कुमार प्रशांत [प्रभात खबर ]

    10 अप्रैल, 1917! सुबह के करीब 10 बजे हैं अौर एक रेलगाड़ी अभी-अभी पटना जंकशन पर अाकर थमी है. एक नया अादमी स्टेशन पर उतरता है जिसे न पटना जानता है अौर न जिसने कभी पटना को जाना-देखा है.    नाम है मोहनदास करमचंद गांधी! मोहनदास करमचंद गांधी नाम का यह अादमी राजकुमार शुक्ल नाम के उस अादमी को भी बहुत थोड़ा जानता है जो उसे कलकत्ता से साथ लेकर पटना अाया है. राजकुमार शुक्ल भी इस मोहनदास करमचंद गांधी को बहुत थोड़ा जानते हैं. हां, वे इतना जरूर जानते हैं कि यह अादमी गुजराती है लेकिन देश में जो कुछ लोग उसे जानते हैं वह सुदूर के देश दक्षिण अफ्रीका के कारण जानते हैं जहां इस अादमी ने ‘कुछ किया’ है. क्या किया,  क्यों अौर कैसे किया, यह राजकुमार शुक्ल भी नहीं के बराबर ही जानते हैं… अौर दोनों यह भी नहीं जानते हैं कि पटना में उन्हें जाना कहां है! मोहनदास करमचंद गांधी को तो पटना कहां है यही नहीं मालूम था अौर राजकुमार शुक्ल को पटना में कौन, क्या है यह नहीं मालूम था.    राजकुमार अपने मेहमान मोहनदास को ले कर पहुंचते हैं अपने बड़े वकील साहब के घर. घर के बाहर की तख्ती पर लिखा है : राजेंद्र प्रसाद! राजेंद्र प्रसाद बहुत बड़े अौर बड़े कमाऊ वकील थे लेकिन देश जिस राजेंद्र प्रसाद को जानता है उसका अभी जन्म नहीं हुअा है. अौर किस्सा यह कि वे राजेंद्र प्रसाद भी न तो घर पर थे, न पटना में थे. नौकरों ने बताया कि वकील साहब पुरी गये हुए हैं. एकदम अजनबी-से शहर में, एक अजनबी अादमी के घर के बरामदे में, दो अजनबी-से अादमी एक अजनबी-सी रात गुजारने को अभिशप्त थे.    अब तक मोहनदास समझ चुके थे कि राजकुमार भोले अादमी हैं जिनकी गठरी में व्यावहारिक बातें कम होती हैं. अपनी डायरी खंगाल कर मोहनदास ने एक नाम निकाला - मजहरुल हक! पटना के नामी वकील अौर मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय मंत्री ! लेकिन मोहनदास के लिए उनका परिचय दूसरा भी था - वे कभी लंदन में मोहनदास के सहपाठी रहे थे. मोहनदास ने उनको खबर भिजवायी तो हक साहब अपनी मोटर में भागे अाये अौर मोहनदास को अपने घर ले अाये. घर तो क्या, कोठी कहें हम! मोहनदास कोठी से ही हिचक गये, जीवन-शैली की तड़क-भड़क ने अौर भी परेशान किया. जब बताया कि    राजकुमार उन्हें चंपारण ले जा रहे हैं तो बारी हक साहब के बिदकने की थी - क्यों यह सारी मुसीबत मोल लेनी जैसा कुछ कहा उन्होंने. वे अपने इंगलैंड वाले दोस्त मोहनदास को इस परेशानी से बचाना चाहते थे. मोहनदास को उनका रवैया अौर उनकी दिखावटी जीवन-शैली पची नहीं अौर उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि हक साहब कट कर रह गये.    अागे की कहानी जैसे चलती है, उसे वैसे ही चलने को छोड़ कर हम सीधा मुजफ्फरपुर पहुंचते हैं जहां मोहनदास को घेर कर बैठे हैं बिहार व देश के नामी वकील साहबान! बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद भी हैं, राजेंद्र प्रसाद भी हैं, रामनवमी प्रसाद भी हैं, सूरजबल प्रसाद, गया बाबू भी हैं. अौर भी कई लोग हैं. चंपारण में चल रही तिनकठिया प्रथा अौर उससे किसानों का हो रहा अकल्पनीय शोषण - सारे महानुभाव इससे परिचित थे. कैसे परिचित नहीं होते! ये सभी इन्हीं शोषित-पीड़ित- वंचित किसानों के मुकदमे भी तो लड़ते थे. न्याय दिलाना इनका पेशा ही था. मोहनदास को बड़ी हैरानी हुई कि ऐसे मृतप्राय किसानों से ये सारे साहबान हजारों रुपयों की फीस वसूलते थे. तर्क उनका सीधा था : घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या!!   लेकिन मोहनदास हमसे चाहते क्या हैं? - यह सवाल था जो कहे-अनकहे सारे माहौल पर पसरा हुअा था. मोहनदास ने कहा : हमें ये मुकदमे लड़ना ही बंद कर देना चाहिए. इनसे लाभ बहुत कम होता है. जब इतना भय हो, इतना शोषण हो तो कचहरियां कितना काम कर सकती हैं ! तो पहला काम है लोगों का भय दूर करना! दूसरी बात है यह संकल्प कि ‘तिनकठिया’ बंद न हो तब तक चैन से नहीं बैठना है. इसलिए वहां चंपारण के किसानों के बीच लंबे समय तक रहना पड़ेगा अौर जब जरूरत पड़े तब जेल जाने की तैयारी रखनी पड़ेगी. मोहनदास चुप हुए तो सारा माहौल चुप हो गया ! चेहरे पर सबके एक ही बात लिखी थी : यह तो अजीब ही तरह का अादमी है. हम मुकदमा लड़ते हैं, यही क्या कम है! अब हम ही मुकदमा भी लड़ें, इनके बीच जा कर भी रहें, इनके लिए जेल भी जाएं! कोई खानदानी अादमी कभी जेल जाता है क्या?    सबकी तरफ से जवाब ब्रजकिशोर बाबू ने दिया : हम अापके साथ रहेंगे, अापका बताया काम भी करेंगे. जिसके पास जितना समय है, वह भी देंगे. जेल जाने वाली बात एकदम नयी है. हम उसकी हिम्मत बनायेंगे.    वे हिम्मत बनाते रहे अौर मोहनदास बात बनाने निकल पड़े. जो जहां, जिस भी तरह चंपारण से जुड़ा था, वे उन सबसे मिलने, बात करने में लगे थे. अौर सबसे जरूरी था कमिश्नर साहब से यह अनुमति पाना कि मोहनदास चंपारण जा सकते हैं. मोहनदास को यह जितना जरूरी लग रहा था कमिश्नर उतना ही साफ था कि यह कतई जरूरी नहीं है कि एक बाहरी अादमी चंपारण की शांति-व्यवस्था भंग करने पहुंच जाये. दोनों की टेक साफ थी. मोहनदास ने बड़ी मासूमियत से अपने वकील साहबानो से कहा: “कमिश्नर साहब जो भी कहें, मैं चंपारण जाऊंगा!” सारे वकील साहबान हैरानी से मोहनदास को देख रहे थे. मोहनदास ने एक पत्र लिखा कमिश्नर साहब के नाम : चाहता तो था कि अापकी अनुमति ले कर जाऊं; अब बिना अनुमति जा रहा हूं. मोहनदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाया : क्या मेरे हिसाब से पहले ही मुझे जेल जाना होगा ?    15 अप्रैल 1917! शाम चार बजे मोहनदास मोतिहारी स्टेशन पहुंचे!    इतिहास ने अागे बढ़ कर परदा उठा दिया : सामने था छोटा-सा मोतिहारी का रेलवे स्टेशन, भाप छोड़ती इंजन की सूं-सूं, अटपटी अौर अजनबी-सी हालत में खड़े मोहनदास अौर अपार, अपार जन!! … मुझे मालूम नहीं कि इतिहास में कभी, कहीं ऐसी अटपटी स्थिति में कोई ऐसा नाटक खेला गया हो जिसने इतिहास को ही बदल डाला हो! लेकिन अाज से ठीक सौ साल पहले ऐसा हुअा था - इतिहास ने अागे बढ़ कर मोहनदास करमचंद गांधी का हाथ थामा अौर बिहार के हाथ में धर दिया !    यहां से अागे बहुत कुछ बदला    मोहनदास करमचंद गांधी इतना बदले कि नाम, धाम, काम, वस्त्र, जीवन, बोली-बानी, साथी-संगति सब बदलते गये. नाम भी कट-छंट कर रह गया सिर्फ गांधी; फिर वह भी नहीं रहा - रह गये सिर्फ बापू! चंपारण मोहनदास का वाटर-लू हो सकता था लेकिन गांधी ने उसे बना दिया अंगरेजी साम्राज्यवाद का वाटर-लू! जब परदा उठा था तब जो गांधी अकेले दिखे थे. वहां से सफर शुरू हुअा तो नापते-नापते गांधी ने इतना कुछ नाप लिया कि इतिहास का हर मंच छोटा पड़ने लगा; अौर जिस यात्रा के प्रारंभ में वे अकेले थे, उसी यात्रा में वे अकेले-एकांत के एक पल के लिए तरसने लगे.            गांधी ने बिहार अा कर अपना वह हथियार मांजा-परखा जो दक्षिण अफ्रीका में तैयार हुअा था; बिहार ने गांधी को पा कर वह हथियार चलाना सीखा जिसे सत्याग्रह कहते हैं. बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा  था: अाप क्या कर सकेंगे?    इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं? जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या?
    10 अप्रैल, 1917! सुबह के करीब 10 बजे हैं अौर एक रेलगाड़ी अभी-अभी पटना जंकशन पर अाकर थमी है. एक नया अादमी स्टेशन पर उतरता है जिसे न पटना जानता है अौर न जिसने कभी पटना को जाना-देखा है. 
    नाम है मोहनदास करमचंद गांधी! मोहनदास करमचंद गांधी नाम का यह अादमी राजकुमार शुक्ल नाम के उस अादमी को भी बहुत थोड़ा जानता है जो उसे कलकत्ता से साथ लेकर पटना अाया है. राजकुमार शुक्ल भी इस मोहनदास करमचंद गांधी को बहुत थोड़ा जानते हैं. हां, वे इतना जरूर जानते हैं कि यह अादमी गुजराती है लेकिन देश में जो कुछ लोग उसे जानते हैं वह सुदूर के देश दक्षिण अफ्रीका के कारण जानते हैं जहां इस अादमी ने ‘कुछ किया’ है. क्या किया,  क्यों अौर कैसे किया, यह राजकुमार शुक्ल भी नहीं के बराबर ही जानते हैं… अौर दोनों यह भी नहीं जानते हैं कि पटना में उन्हें जाना कहां है! मोहनदास करमचंद गांधी को तो पटना कहां है यही नहीं मालूम था अौर राजकुमार शुक्ल को पटना में कौन, क्या है यह नहीं मालूम था. 
    राजकुमार अपने मेहमान मोहनदास को ले कर पहुंचते हैं अपने बड़े वकील साहब के घर. घर के बाहर की तख्ती पर लिखा है : राजेंद्र प्रसाद! राजेंद्र प्रसाद बहुत बड़े अौर बड़े कमाऊ वकील थे लेकिन देश जिस राजेंद्र प्रसाद को जानता है उसका अभी जन्म नहीं हुअा है. अौर किस्सा यह कि वे राजेंद्र प्रसाद भी न तो घर पर थे, न पटना में थे. नौकरों ने बताया कि वकील साहब पुरी गये हुए हैं. एकदम अजनबी-से शहर में, एक अजनबी अादमी के घर के बरामदे में, दो अजनबी-से अादमी एक अजनबी-सी रात गुजारने को अभिशप्त थे. 
    अब तक मोहनदास समझ चुके थे कि राजकुमार भोले अादमी हैं जिनकी गठरी में व्यावहारिक बातें कम होती हैं. अपनी डायरी खंगाल कर मोहनदास ने एक नाम निकाला - मजहरुल हक! पटना के नामी वकील अौर मुस्लिम लीग के राष्ट्रीय मंत्री ! लेकिन मोहनदास के लिए उनका परिचय दूसरा भी था - वे कभी लंदन में मोहनदास के सहपाठी रहे थे. मोहनदास ने उनको खबर भिजवायी तो हक साहब अपनी मोटर में भागे अाये अौर मोहनदास को अपने घर ले अाये. घर तो क्या, कोठी कहें हम! मोहनदास कोठी से ही हिचक गये, जीवन-शैली की तड़क-भड़क ने अौर भी परेशान किया. जब बताया कि 
    राजकुमार उन्हें चंपारण ले जा रहे हैं तो बारी हक साहब के बिदकने की थी - क्यों यह सारी मुसीबत मोल लेनी जैसा कुछ कहा उन्होंने. वे अपने इंगलैंड वाले दोस्त मोहनदास को इस परेशानी से बचाना चाहते थे. मोहनदास को उनका रवैया अौर उनकी दिखावटी जीवन-शैली पची नहीं अौर उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि हक साहब कट कर रह गये. 
    अागे की कहानी जैसे चलती है, उसे वैसे ही चलने को छोड़ कर हम सीधा मुजफ्फरपुर पहुंचते हैं जहां मोहनदास को घेर कर बैठे हैं बिहार व देश के नामी वकील साहबान! बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद भी हैं, राजेंद्र प्रसाद भी हैं, रामनवमी प्रसाद भी हैं, सूरजबल प्रसाद, गया बाबू भी हैं. अौर भी कई लोग हैं. चंपारण में चल रही तिनकठिया प्रथा अौर उससे किसानों का हो रहा अकल्पनीय शोषण - सारे महानुभाव इससे परिचित थे. कैसे परिचित नहीं होते! ये सभी इन्हीं शोषित-पीड़ित- वंचित किसानों के मुकदमे भी तो लड़ते थे. न्याय दिलाना इनका पेशा ही था. मोहनदास को बड़ी हैरानी हुई कि ऐसे मृतप्राय किसानों से ये सारे साहबान हजारों रुपयों की फीस वसूलते थे. तर्क उनका सीधा था : घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या!!
    लेकिन मोहनदास हमसे चाहते क्या हैं? - यह सवाल था जो कहे-अनकहे सारे माहौल पर पसरा हुअा था. मोहनदास ने कहा : हमें ये मुकदमे लड़ना ही बंद कर देना चाहिए. इनसे लाभ बहुत कम होता है. जब इतना भय हो, इतना शोषण हो तो कचहरियां कितना काम कर सकती हैं ! तो पहला काम है लोगों का भय दूर करना! दूसरी बात है यह संकल्प कि ‘तिनकठिया’ बंद न हो तब तक चैन से नहीं बैठना है. इसलिए वहां चंपारण के किसानों के बीच लंबे समय तक रहना पड़ेगा अौर जब जरूरत पड़े तब जेल जाने की तैयारी रखनी पड़ेगी. मोहनदास चुप हुए तो सारा माहौल चुप हो गया ! चेहरे पर सबके एक ही बात लिखी थी : यह तो अजीब ही तरह का अादमी है. हम मुकदमा लड़ते हैं, यही क्या कम है! अब हम ही मुकदमा भी लड़ें, इनके बीच जा कर भी रहें, इनके लिए जेल भी जाएं! कोई खानदानी अादमी कभी जेल जाता है क्या? 
    सबकी तरफ से जवाब ब्रजकिशोर बाबू ने दिया : हम अापके साथ रहेंगे, अापका बताया काम भी करेंगे. जिसके पास जितना समय है, वह भी देंगे. जेल जाने वाली बात एकदम नयी है. हम उसकी हिम्मत बनायेंगे. 
    वे हिम्मत बनाते रहे अौर मोहनदास बात बनाने निकल पड़े. जो जहां, जिस भी तरह चंपारण से जुड़ा था, वे उन सबसे मिलने, बात करने में लगे थे. अौर सबसे जरूरी था कमिश्नर साहब से यह अनुमति पाना कि मोहनदास चंपारण जा सकते हैं. मोहनदास को यह जितना जरूरी लग रहा था कमिश्नर उतना ही साफ था कि यह कतई जरूरी नहीं है कि एक बाहरी अादमी चंपारण की शांति-व्यवस्था भंग करने पहुंच जाये. दोनों की टेक साफ थी. मोहनदास ने बड़ी मासूमियत से अपने वकील साहबानो से कहा: “कमिश्नर साहब जो भी कहें, मैं चंपारण जाऊंगा!” सारे वकील साहबान हैरानी से मोहनदास को देख रहे थे. मोहनदास ने एक पत्र लिखा कमिश्नर साहब के नाम : चाहता तो था कि अापकी अनुमति ले कर जाऊं; अब बिना अनुमति जा रहा हूं. मोहनदास ने मन-ही-मन हिसाब लगाया : क्या मेरे हिसाब से पहले ही मुझे जेल जाना होगा ? 
    15 अप्रैल 1917! शाम चार बजे मोहनदास मोतिहारी स्टेशन पहुंचे! 
    इतिहास ने अागे बढ़ कर परदा उठा दिया : सामने था छोटा-सा मोतिहारी का रेलवे स्टेशन, भाप छोड़ती इंजन की सूं-सूं, अटपटी अौर अजनबी-सी हालत में खड़े मोहनदास अौर अपार, अपार जन!! … मुझे मालूम नहीं कि इतिहास में कभी, कहीं ऐसी अटपटी स्थिति में कोई ऐसा नाटक खेला गया हो जिसने इतिहास को ही बदल डाला हो! लेकिन अाज से ठीक सौ साल पहले ऐसा हुअा था - इतिहास ने अागे बढ़ कर मोहनदास करमचंद गांधी का हाथ थामा अौर बिहार के हाथ में धर दिया ! 
    यहां से अागे बहुत कुछ बदला 
    मोहनदास करमचंद गांधी इतना बदले कि नाम, धाम, काम, वस्त्र, जीवन, बोली-बानी, साथी-संगति सब बदलते गये. नाम भी कट-छंट कर रह गया सिर्फ गांधी; फिर वह भी नहीं रहा - रह गये सिर्फ बापू! चंपारण मोहनदास का वाटर-लू हो सकता था लेकिन गांधी ने उसे बना दिया अंगरेजी साम्राज्यवाद का वाटर-लू! जब परदा उठा था तब जो गांधी अकेले दिखे थे. वहां से सफर शुरू हुअा तो नापते-नापते गांधी ने इतना कुछ नाप लिया कि इतिहास का हर मंच छोटा पड़ने लगा; अौर जिस यात्रा के प्रारंभ में वे अकेले थे, उसी यात्रा में वे अकेले-एकांत के एक पल के लिए तरसने लगे.           
    गांधी ने बिहार अा कर अपना वह हथियार मांजा-परखा जो दक्षिण अफ्रीका में तैयार हुअा था; बिहार ने गांधी को पा कर वह हथियार चलाना सीखा जिसे सत्याग्रह कहते हैं. बिहार के लोगों ने गांधी से पूछा था : हमसे अाप क्या चाहते हैं? गांधी ने बिहार से पूछा  था: अाप क्या कर सकेंगे? 
    इस सवाल-जवाब के सौ साल बाद बिहार पूछ रहा है : अाप हमसे क्या चाहते हैं? जवाब देने वाला कोई गांधी कहीं है क्या?
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